स्वास्थ्य-चिकित्सा >> चमत्कारी जड़ी बूटियाँ चमत्कारी जड़ी बूटियाँमहर्षि अभय कात्यायन
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जो पौधे औषधीयोपयोगी हैं और अपने चमत्कारिक प्रभाव से मानवों एवं पशुओं के कष्ट दूर करते हैं, उन्हें ‘जड़ी-बूटी’ कहा जाता है। इस पुस्तक में हमारे दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाले पौधों का पूर्ण वर्णन उनके परिचय एवं चमत्कारी गुणों के साथ किया जा रहा है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जिन वनस्पतियों का औषधोपयोग, आहारोपयोग एवं चमत्कारी गुणों का ज्ञान
तज्ज्ञों को होता है, उन्हें ‘जड़ी-बूटी’ कहा जाता है। जिन
तत्त्वों से मानव शरीर निर्मित है, वही तत्त्व परिमाण भिन्नता के साथ
जड़ी-बूटियों में भी विद्यमान रहते हैं। इस तथ्य की पुष्टि आधुनिक वनस्पति
वैज्ञानिकों के द्वारा किये गये रासायनिक विश्लेषणों से भी हो चुकी है,
अतः वनस्पतियाँ मानव के लिये आहार एवं औषधि दोनों ही हैं।
इस प्रकार का स्वास्थ्य युक्ताहार विहार के साथ जड़ी-बूटियों के मंत्र सहित, श्रद्धायुक्त उपयोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जड़ी-बूटियाँ अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष प्रदायक आरोग्य एवं दीर्घायु की प्राप्ति में योगदान करती हैं। इतनी ही नहीं ये जड़ी-बूटियाँ अहर्विशपरोपकार के लिये सन्नद्ध रहती हुई मानव को परोपकारी एवं उदार बनने की प्रेरणा देती हैं।
इस प्रकार का स्वास्थ्य युक्ताहार विहार के साथ जड़ी-बूटियों के मंत्र सहित, श्रद्धायुक्त उपयोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जड़ी-बूटियाँ अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष प्रदायक आरोग्य एवं दीर्घायु की प्राप्ति में योगदान करती हैं। इतनी ही नहीं ये जड़ी-बूटियाँ अहर्विशपरोपकार के लिये सन्नद्ध रहती हुई मानव को परोपकारी एवं उदार बनने की प्रेरणा देती हैं।
प्राक्कथन
विगत 36 वर्षों से आयुर्वेदीय पद्धति से चिकित्सा कार्य करते हुए भारत में
उत्पन्न जड़ी-बूटियों के गुण-धर्मों एवं प्रयोगों का जो अनुभव हुआ उसे
दूसरों को बाँटने की लालसा बहुत समय से थी। कहते
हैं—‘‘जहाँ चाह है, वहाँ राह
है।’’ जब
भगवती पॉकेट बुक्स के व्यवस्थापक श्री राजीव अग्रवाल का इस विषय में आग्रह
हुआ तब उसकी पूर्ति ‘‘चमत्कारी
जड़ी-बूटियाँ’’
नामक लघु पुस्तिका के रूप में करने का प्रयास किया।
वनस्पतियों का मानव शरीर को निरोग करने हेतु प्रयोग सर्वथा हानि रहित तथा सौम्य प्रभाव वाला होता है। इस पुस्तक में चुनी हुई लगभग 32 जड़ी-बूटियों के गुण धर्म उपयोग का सांगोपांग विवेचन है। पुस्तक की भाषा को यथा सम्भव सरल एवं बोधगम्य रखने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक भाषा-विज्ञान में रुचि रखने वाले पाठकों को भी अवश्य ही रुचिकर प्रतीत होगी; क्योंकि इसमें अनेक शब्दों की सही व्युत्पत्ति को खोजकर सामने लाया गया है। विश्व की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है।
पुस्तक के लेखन में प्राचीन भारतीय मनीषियों द्वारा रचित ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक अर्वाचीन भारतीय एवं विदेशी मनीषियों द्वारा प्रणीत एवं संपादित ग्रन्थों से जो अमूल्य सहयोग प्राप्त हु्आ है सो उन सबके प्रति लेखक आभार प्रकट करता है।
पुस्तक के शीघ्र एवं शुद्ध प्रकाशन हेतु श्री राजीव अग्रवाल का भी आभारी हूँ। पुस्तक की पाण्डुलिपि के तैयार करने में मेरे मंझले पुत्र चि. विकासमणि शास्त्री ने जो परिश्रम किया है, उसके लिए उन्हें आशीर्वाद प्रदान करता हूँ।
अन्त में, सुधी पाठकों से अनुरोध है कि वे पुस्तक के पठनोपरान्त अपने विचारों से लेखक को अवगत कराने की कृपा करें।
वनस्पतियों का मानव शरीर को निरोग करने हेतु प्रयोग सर्वथा हानि रहित तथा सौम्य प्रभाव वाला होता है। इस पुस्तक में चुनी हुई लगभग 32 जड़ी-बूटियों के गुण धर्म उपयोग का सांगोपांग विवेचन है। पुस्तक की भाषा को यथा सम्भव सरल एवं बोधगम्य रखने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक भाषा-विज्ञान में रुचि रखने वाले पाठकों को भी अवश्य ही रुचिकर प्रतीत होगी; क्योंकि इसमें अनेक शब्दों की सही व्युत्पत्ति को खोजकर सामने लाया गया है। विश्व की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है।
पुस्तक के लेखन में प्राचीन भारतीय मनीषियों द्वारा रचित ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक अर्वाचीन भारतीय एवं विदेशी मनीषियों द्वारा प्रणीत एवं संपादित ग्रन्थों से जो अमूल्य सहयोग प्राप्त हु्आ है सो उन सबके प्रति लेखक आभार प्रकट करता है।
पुस्तक के शीघ्र एवं शुद्ध प्रकाशन हेतु श्री राजीव अग्रवाल का भी आभारी हूँ। पुस्तक की पाण्डुलिपि के तैयार करने में मेरे मंझले पुत्र चि. विकासमणि शास्त्री ने जो परिश्रम किया है, उसके लिए उन्हें आशीर्वाद प्रदान करता हूँ।
अन्त में, सुधी पाठकों से अनुरोध है कि वे पुस्तक के पठनोपरान्त अपने विचारों से लेखक को अवगत कराने की कृपा करें।
विदुषामनुचर
महर्षि अभय कात्यायन
महर्षि अभय कात्यायन
विषय प्रवेश
मंगलाचरण
परमेशं तु प्रणम्यादौ नाना ग्रन्थान्विलोक्य च।
करोमि राष्ट्रभाषायां ‘जटाभूभूति’ ग्रंथकम्।।
करोमि राष्ट्रभाषायां ‘जटाभूभूति’ ग्रंथकम्।।
संस्कृत भाषा में जिन्हें पादप, वृक्ष, तरु, वनस्पति, भूरुह, भूतनय, वीरुध
आदि कहते हैं तथा हिन्दी में पेड़-पौधे, झाड़-रूख आदि नामों से पुकारते
हैं उनमें से जो पौधे औषधोपयोगी हैं और अपने चमत्कारिक प्रभाव
से
मानवों एवं पशुओं के कष्ट दूर करते हैं उन्हें
‘जड़ी-बूटी’
शब्द से सम्बोधित किया जाता है। ये जड़ी-बूटियाँ, ग्राम, नगर, इनके चारों
ओर तथा वन-जंगल में सरप्वत्र उत्पन्न होती हैं। परन्तु आज का व्यस्त मानव
इन्हें पहचानता नहीं है। यदि पहचानता भी है तो इनके गुणों से अपरिचित रहने
के कारण इनसे लाभ उठाने में असमर्थ है।
‘जड़ी-बूटी’ शब्द में दो शब्द हैं—जड़ी का अर्थ (Root) वाली वस्तु। पौधों में जड़ें होती हैं, जड़ को मूल भी कहते हैं। बिना मूल के पौधे का अस्तित्व नहीं होता। ‘बूटी’ शब्द संस्कृति के ‘भू-भूति’ (भूभूति) शब्द का अपभ्रंश है। पौधों को बूटा भी इसीलिए कहा जाता है कि क्योंकि ये पृथ्वी (भू) के तनय यानी पुत्र हैं या पृथ्वी से जिसकी उत्पत्ति हो वह भू-भूति। यह ऐसी भूति है जिसे पृथ्वी अपने पृष्ठ (सतह) पर उत्पन्न करती है। अँग्रेजी में प्रचलित शब्द बॉटनी (Botany) संस्कृति ‘भूतनयी’ शब्द का अपभ्रंश है। संस्कृत से यह शब्द ग्रीक भाषा में अपभ्रष्ट होकर (Botanikos) बाटनिक्स बना। संस्कृत का (‘‘भू-तनयिक’) जो कि फ्रेंच भाषा में Botanique (बॉटनिक) नाम से रूपान्तरित हो गया फिर ईसा की 17वीं शताब्दी में यही अँग्रेजी में बॉटनिक (Botanic) हो गया। किसी समय संस्कृत ही विश्व की एक मात्र भाषा थी जिसकी व्यवहार सम्पूर्ण जगत करता था। संसार की सभी भाषाएँ किसी न किसी रूप में संस्कृत से ही विकसित हुई हैं। उच्चारण भेद से आज भाषाओं में अत्यधिक पार्थत्य दिखायी देने लगा है। भूति का अर्थ उत्पादन, सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य होता है।
भारतवर्ष में एक वर्ष के भीतर छः ऋतुएँ तथा तीन मौसम होते हैं। भूमि भी अनेक प्रकार की है। यह एक ईश्वरीय वरदान है जिसके कारण हमारे देश में प्रायः सभी प्रजातियों की वनस्पतियाँ उगती हैं। परन्तु इसे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कह सकते हैं कि प्रदूषण तथा जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई के कारण आज पेड़-पौधे लुप्त होते चले जा रहे हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या भी इसका एक प्रबव कारण है। यदि समय रहते हुए हमने इस पर ध्यान न दिया तब इसके भयावह परिणामों को रोका न जा सकेगा। इस पुस्तक में हमारे दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाले पौधों के अतिरिक्त ऐसे पौधे जो सुलभ हैं, हमारे आस- पास के परिवेश में उपलब्ध हैं और जिनमें से अनेक पौधों से जनसामान्य भली-भाँति परिचित भी है। उनके परिचय एवं चमत्कारी गुणों का वर्णन किया जा रहा है इनके गुणों का उपयोग घरेलू चिकित्सा, पशु चिकित्सा, तन्त्र प्रयोग, वास्तु, ज्योतिष, होम्योपैथी आदि क्षेत्रों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। जनसामान्य इनका उपयोग सावधानीपूर्वक करके अपना एवं अपने परिवार का महान हित साधन कर सकता है।
‘जड़ी-बूटी’ शब्द में दो शब्द हैं—जड़ी का अर्थ (Root) वाली वस्तु। पौधों में जड़ें होती हैं, जड़ को मूल भी कहते हैं। बिना मूल के पौधे का अस्तित्व नहीं होता। ‘बूटी’ शब्द संस्कृति के ‘भू-भूति’ (भूभूति) शब्द का अपभ्रंश है। पौधों को बूटा भी इसीलिए कहा जाता है कि क्योंकि ये पृथ्वी (भू) के तनय यानी पुत्र हैं या पृथ्वी से जिसकी उत्पत्ति हो वह भू-भूति। यह ऐसी भूति है जिसे पृथ्वी अपने पृष्ठ (सतह) पर उत्पन्न करती है। अँग्रेजी में प्रचलित शब्द बॉटनी (Botany) संस्कृति ‘भूतनयी’ शब्द का अपभ्रंश है। संस्कृत से यह शब्द ग्रीक भाषा में अपभ्रष्ट होकर (Botanikos) बाटनिक्स बना। संस्कृत का (‘‘भू-तनयिक’) जो कि फ्रेंच भाषा में Botanique (बॉटनिक) नाम से रूपान्तरित हो गया फिर ईसा की 17वीं शताब्दी में यही अँग्रेजी में बॉटनिक (Botanic) हो गया। किसी समय संस्कृत ही विश्व की एक मात्र भाषा थी जिसकी व्यवहार सम्पूर्ण जगत करता था। संसार की सभी भाषाएँ किसी न किसी रूप में संस्कृत से ही विकसित हुई हैं। उच्चारण भेद से आज भाषाओं में अत्यधिक पार्थत्य दिखायी देने लगा है। भूति का अर्थ उत्पादन, सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य होता है।
भारतवर्ष में एक वर्ष के भीतर छः ऋतुएँ तथा तीन मौसम होते हैं। भूमि भी अनेक प्रकार की है। यह एक ईश्वरीय वरदान है जिसके कारण हमारे देश में प्रायः सभी प्रजातियों की वनस्पतियाँ उगती हैं। परन्तु इसे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कह सकते हैं कि प्रदूषण तथा जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई के कारण आज पेड़-पौधे लुप्त होते चले जा रहे हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या भी इसका एक प्रबव कारण है। यदि समय रहते हुए हमने इस पर ध्यान न दिया तब इसके भयावह परिणामों को रोका न जा सकेगा। इस पुस्तक में हमारे दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाले पौधों के अतिरिक्त ऐसे पौधे जो सुलभ हैं, हमारे आस- पास के परिवेश में उपलब्ध हैं और जिनमें से अनेक पौधों से जनसामान्य भली-भाँति परिचित भी है। उनके परिचय एवं चमत्कारी गुणों का वर्णन किया जा रहा है इनके गुणों का उपयोग घरेलू चिकित्सा, पशु चिकित्सा, तन्त्र प्रयोग, वास्तु, ज्योतिष, होम्योपैथी आदि क्षेत्रों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। जनसामान्य इनका उपयोग सावधानीपूर्वक करके अपना एवं अपने परिवार का महान हित साधन कर सकता है।
वृक्षों के प्रति हमारा कर्तव्य
संस्कृत वाङ्मय एवं साहित्य में वृक्षों की महिमा का वर्ण प्रचुरता से हुआ
है। श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध के 22वें अध्याय में आया हुआ
विवरण हम सब की आँकें खोलने वाला है। उसके अनुसार एख दिन भगवान् श्रीकृष्ण
गोचारण करते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये। ग्रीष्म ऋतु के संताप से
व्यकुल होकर सभी ग्वाल-बाल घने वृक्षों की शीतल छाया में विश्राम करने
लगे। वे वृक्षों की लटहनियों से पंखों का काम ले रहे थे। तबी अचानक
श्रीकृष्ण अपने साथियों को सम्बोधित करते हुए कहने लगे—
हे स्तोक कतृष्ण ! हे अंसों ! श्रीदामन् सुहलार्जुन।
विशालर्षभ तेजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप।।1।।
पश्यैतान् महाभागान् परार्थैकान्त जीवितान्।
वात वर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति नः।।2।।
अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीविनम्।
सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः।।3।।
विशालर्षभ तेजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप।।1।।
पश्यैतान् महाभागान् परार्थैकान्त जीवितान्।
वात वर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति नः।।2।।
अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीविनम्।
सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः।।3।।
अर्थात् हे श्रीकृष्ण ! हे अंशप ! हे श्रादामा ! हे सुबल ! हे अर्जुन ! हे
विशाल ! हे ऋषभ हे जसस्वी ! हे वरुथप ! (ये उनके सखाओं के नाम हैं उनमें
से प्रत्येक का सम्बोधन है) इन भाग्यशाली वृक्षों को देखा जो दूसरों की
भलाई के लिए ही जीवित हैं। ये वृक्ष हम सबकी आँधी, वर्षा, ओला, पाला, धूप
से बचाते हैं और स्वयं इनको झेलते हैं। इन (वृक्षों) का जीवन धन्य है
क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं। जैसे कोई सज्जन
पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष बी रोगों को खाली
हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं।
वृक्ष हमें क्या-क्या देते हैं उनसे हमें क्या लाभ हैं। ? यह सहब विस्तारपूर्वर समझाते हुए भगवान अपने श्रीमुख से कहते हैं।
वृक्ष हमें क्या-क्या देते हैं उनसे हमें क्या लाभ हैं। ? यह सहब विस्तारपूर्वर समझाते हुए भगवान अपने श्रीमुख से कहते हैं।
पत्र, पुष्प, फलच्छाया, मूल, वल्कल दारुभिः
गंध, निर्यास भस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते।।1।।
एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु।
प्राणैरर्थ धिया वाचा श्रेय एवाचरेत् सदा।।2।।
गंध, निर्यास भस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते।।1।।
एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु।
प्राणैरर्थ धिया वाचा श्रेय एवाचरेत् सदा।।2।।
अर्थात् ये वृक्ष पत्र (Leaves), पुष्प (Flower), फल (Fruits), छाया, मूल
(Roots), वल्कल (Bark), दारू या लकड़ी (Woods & Timbers), गंध
(Flavour, Volatiloiles, Perfumery, Scent, Essance ets.),
निर्यास
या गोंद (Gum and Resin ets.), भस्म (Ash), अस्थि (coal), तोक्म (Seeds)
आदि पदार्थों के द्वारा हमारा उपकार करते हैं। इन वृक्षों की बाँति ही
मनुष्य को अपना जीवन, तन, मन, धन, सब कुछ दूसरों की भलाई में लगा देना
चाहिए। इसी में मानव जीवन की सफलता है। भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश
ध्यान में रखते हुए हमें वृक्षों का रोपण, सिंचन पालन-पोषण तथा रक्षण करना
आवश्यक है। महाकवि कालिदास ने रघुवंश में वृक्षों के संरक्षण हेतु
प्राचीनकाल के आश्रमवासी किस प्रकार की व्यवस्था करते थे उसका उल्लेख करते
हुए अपनी भावी पीढ़ियों को चेतावनी दी है—
‘‘आधारबन्धैः प्रमुखैः प्रयत्नैः, सम्बद्धितानां सुत
निर्वशेषम्।
कष्चिमन्न वाय्वादिरुपप्लवो वा, श्रमच्छिदं आश्रम पादपानाम्।।’’
कष्चिमन्न वाय्वादिरुपप्लवो वा, श्रमच्छिदं आश्रम पादपानाम्।।’’
अर्थात् आधार बन्ध (आलवाल, घेरा, घरोंगा, थावंला) आदि प्रयत्नों से एवं
उनकी कटाई-छटाई आदि करके पुत्रों के समान वृक्षों की रक्षा करनी चाहिए,
जिससे वे आँधी, पानी आदि उपद्रवों से बचे रहकर आश्रम में आये पथिकों का
श्रम (थकावट) दूर करने योग्य बने रहें। प्राचीन काल में
आश्रमवासी
एक-दूसरे की कुशल-क्षेम में, आश्रम में रोपे गये वृक्षों की कुशलता अवश्य
ही पूछा करते थे। इस स्लोक से यह तथ्य स्पष्ट विदित होता है कि प्राचीन
ऋषि-मुनि वृक्षों के प्रति कितने सचेत और गम्भीर थे।
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- विषय-प्रवेश
- वृक्षों के प्रति हमारा कर्तव्य
- वृक्षों के विभिन्न नाम
- जड़ी बूटियों का वर्गीकरण
- महत्वपूर्ण शब्दों के अर्थ
- आवश्यक पारिभाषिक शब्दावली
- ऊँटकटारा
- अंकोल (अकोला)
- रोहिड़ा
- छोंकर
- बेर या बदरी वृक्ष
- कसौंदी
- अतीस
- कनेर (सफेद तथा लाल)
- कुश
- करील या करीर
- अंजीर
- शंखपुष्पी
- बुवई या वन तुलसी
- चकवड़ या पंवाड़
- ब्राह्मी
- मण्डूकपर्णी
- तुलसी
- बथुआ
- पुनर्नवा (सांठ)
- धतूरा
- इन्द्रायण
- सुपारी
- भृंगराज
- हरड़
- बहेड़ा
- भांग
- गुंजा (रक्त और श्वेत)
- कदम्ब
- अपराजिता (कोयल)
- कटेरी (छोटी और बड़ी)
- ईख
- सहयोगी एवं सन्दर्भ ग्रन्थ
अनुक्रम
विनामूल्य पूर्वावलोकन
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लोगों की राय
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